Tuesday, 5 April 2016

गौहत्या पर विवाद, धर्म संवेदनशीलता या तमाशा?

सबसे पहले मैं ये दो लिंक शेयर कर रहा हूँ, इन्हें गायों पे खून-खराबा करने वाले लोग पढ़ें और फैसला करें की आज के भारत में नेताओं और धर्म गुरुओं के बहकावे में आकर हत्या या किसी एक समुदाय से नफरत करना सही है या दिमाग से काम लेना?


पहली खबर में उच्चतम न्यायलय ने व्यवस्था को कड़े शब्दों में फटकार लगाकर पूछा है की प्लास्टिक से बनी थैलियों पर अभी तक पूरी तरह से रोक क्यों नहीं लग पा रही? गौरतलब है की माननीय न्यायलय ने कुछ समाजिक संस्थाओं के PIL पर फैसला देते हुए ये कहा था. PIL में गाय के पेट से कई किलोग्राम प्लास्टिक की थैली पाये जाने पर इसे एटम बम से भी खतरनाक बताया था, क्योकि इससे गायों की दर्दनाक तरीके से मौत हुई थी और आगे भी होती रहेगी बशर्ते हम खुद इस कानून पर अमल करें. आगे दूसरी खबर में सरकार ने एक रिपोर्ट जारी कर ये कहा था की औसतन ३० किलोग्राम प्लास्टिक भारत में मरे गाय या भैंस में पाया जाता है। देश में कानून तो बने हैं पर उनपे अमल करना जनता का काम है, जो की जनता नहीं कर रही हाँ पर गाय और सुवर पर बन रहे नफरत के विडिओ को दोनों ही समुदाय व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर साँझा करने में तनिक नहीं हिचक रही। अच्छे खासे और पढेलिखे नौजवानों को न जाने कौन सा भूत सवार हो जाता है जो वे धर्म व जाति-पाति के नाम पर मिनटों में मरने मारने को तैयार हो जाते हैं।

लिखने से पहले मन में एक ही बात आ रही थी, जैसा की एक हिंदी फिल्म में भी कहा था की इस देश में धार्मिक विचारधारा के खिलाफ कुछ भी बोलोगे तो तुम्हें त्रिशूल घुसा हुआ मिलेगा। मुझे भी लगा था की ठीक है अगर आस्था का सवाल है तो उसपर प्रश्नचिन्ह लगाना उचित तो नहीं। मगर हाल के दिनों में जिस तरह का मंज़र इस देश में बन रहा है उसपर अब सवाल उठेंगे पूरी दुनिया पूछेगी आज मैं भी पूछ रहा हूँ की क्या हम केवल किसी एक धर्म की नुमाइंदे ही हैं? क्या उससे पहले एक इंसान नहीं हैं? क्या हमारी महान तथा प्राचीन संस्कृति हमें यही सिखाती आई है की नफरत के बदले नफरत फैलाओ? क्या गंगा-जमुना की तहज़ीब  जिसे कह कर हम बड़े खुश होते हैं इतनी कमज़ोर एकता के बारे में है? क्या भारत का निर्माण इसी अनेकता में एकता के नाम पर हुआ था? क्या देश का संविधान जो की इस देश को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की संज्ञा देता है और हमें आपसी भाईचारा और सौहार्द बनाये रखने की अपील करता है,सांप्रदायिक बातों को बढ़ावा देकर हम उसकी अवहेलना नहीं कर रहे?

हम सभी के पास इन प्रश्नों का उत्तर है मगर क्या करें बीच में 'लेकिन' लग जाता है। कहेंगे आप की बात सही है 'लेकिन उन्होंने', 'लेकिन पहले उन्होंने','लेकिन आपको असलियत नहीं पता' लेकिन ये तो लेकिन वो। इस समृद्ध समाज में हम बच्चों की तरह बातें करने लग जाते हैं, बचपन में भाई-बहनों से झगड़ते थे तो माँ से शिकायत करते थे की 'लेकिन उसने ऐसा किया वैसा किया' बस वैसा ही कुछ मंजर है आजकल, समाज उनके सोये हुए सौहार्द को जगाता है या कोशिश भी करता है तो ये सब समझते हुए भी बीच में ये 'लेकिन' को ला देंगे। याद आता है की बचपन में माँ समझाती थी जाने दो वो तुम्हारा छोटा भाई है और छोटे से कहती की वो बड़ा भाई है बात को जाने दो। माँ को हमेशा से पता था की अगर मेरे बच्चे एक हैं तभी जीवन में कामयाब हैं, अगर नहीं हैं तो न ही परिवार है और न समाज में इज़्ज़त है। अब कौन बनेगा इन बड़े-बड़े और दिमागी रूप से स्वस्थ्य बच्चों की माँ फिर उन्हें समझायेगा की देश और देश की इज़्ज़त एकता, भाई-चारा तथा आपसी सौहार्द में ही है।आज दुनिया हम पर हंस रही है।

ये अकेला किस्सा नहीं है,ऐसे बहुत सारे मौके आये हैं जब हम सब ने इस देश को दुनिया के नज़रो में कलंकित किया है और दुनिया वालों को हम पर हंसने का मौका दिया है। मैंने हम सब इसलिए कहा क्यूंकि हम सभी लोग इसमें बराबर के हिस्सेदार हैं, साम्प्रदायिकता के खिलाफ चुप रहना भी उसे बढ़ावा देना है और हम सब किसी न किसी रूप में उसे बढ़ावा ही देते हैं, चाहे वह व्हाट्सएप्प हो या कोई भी सोशल मीडिया साइट हो। आशा करता हूँ की अगली बार ऐसे सांप्रदायिक मेसेजेस तथा पोस्ट को आप नज़रअंदाज़ नहीं करेंगे और शायद भेजने वाले को कड़े से कड़ा सन्देश देंगे। नहीं तो आप ज़िम्मेदार हैं भारत का हर एक नागरिक ज़िम्मेदार है चाहे वो दादरी हो या बाबरी फिर वो गोधरा हो या मुज़फ्फरनगर नुकसान आप सब का होगा पूरे देश का होगा।